जलधारा की मेड़ से गुजरते हुए
वहीं किनारे अनायास खिले पुष्प से
नथुनों को अनायास ही
अपूर्व गंध भेंट हुई
प्रश्न उठा अरे पुष्प
तुम किसकी
और किसे भेंट हो
वह भी इस निविड़ वन में
प्रश्न से अनजान
पुष्प की गंध प्राणों के पोर पोर में
भेंट होती रही
आह! तभी मैं झेंप गया
पुष्प के सामने ही अपने इस प्रश्न पर
झेंप गया
अश्रु ढुलक पड़े
कैसी मूढ़ता है मेरी
मैंने सदा भेंट दी है या फिर भेंट
स्वीकार की है
भेंट में भी तो मैं बना ही रहा हूँ
उसे जिसे मैं परमात्मा कहता हूँ
उससे भी न जाने क्या क्या भेंट
माँगता रहा हूँ
आह! मुझे इतनी सहज ख़बर
क्यूँकर न हुई
यहाँ सब भेंट का ही तो प्रवाह है
किसी से किसी को नहीं
किसी को किसी से नहीं
बस भेंट मात्र
भेंट के इस जीवंत महाप्रवाह में
पुष्प की महिमा के समक्ष झेंप कर
मैं अब अकारण
अकारण को भेंट हो चला हूँ
यह देह पुष्प भेंट है
यह मन सौंदर्य भेंट है
यह हृदय गंध भेंट है
यह जीवन प्रस्फुटन भेंट है
यह अमिय की ओर सरकना भी भेंट है
यह सब सदा ही भेंट रहा है
बस अब मैं जो इस भेंट में कभी नहीं रहा
फिर भी रहा
अपने दुखों तिलिस्मों संग भेंट हो चला है
धर्मराज
10 August 2022
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