top of page
Image by NordWood Themes
Image by NordWood Themes
Writer's pictureDharmraj

अनायास भेंट



जलधारा की मेड़ से गुजरते हुए

वहीं किनारे अनायास खिले पुष्प से

नथुनों को अनायास ही

अपूर्व गंध भेंट हुई

प्रश्न उठा अरे पुष्प

तुम किसकी

और किसे भेंट हो

वह भी इस निविड़ वन में

प्रश्न से अनजान

पुष्प की गंध प्राणों के पोर पोर में

भेंट होती रही

आह! तभी मैं झेंप गया

पुष्प के सामने ही अपने इस प्रश्न पर

झेंप गया

अश्रु ढुलक पड़े

कैसी मूढ़ता है मेरी

मैंने सदा भेंट दी है या फिर भेंट

स्वीकार की है

भेंट में भी तो मैं बना ही रहा हूँ

उसे जिसे मैं परमात्मा कहता हूँ

उससे भी न जाने क्या क्या भेंट

माँगता रहा हूँ

आह! मुझे इतनी सहज ख़बर

क्यूँकर न हुई

यहाँ सब भेंट का ही तो प्रवाह है

किसी से किसी को नहीं

किसी को किसी से नहीं

बस भेंट मात्र

भेंट के इस जीवंत महाप्रवाह में

पुष्प की महिमा के समक्ष झेंप कर

मैं अब अकारण

अकारण को भेंट हो चला हूँ

यह देह पुष्प भेंट है

यह मन सौंदर्य भेंट है

यह हृदय गंध भेंट है

यह जीवन प्रस्फुटन भेंट है

यह अमिय की ओर सरकना भी भेंट है

यह सब सदा ही भेंट रहा है

बस अब मैं जो इस भेंट में कभी नहीं रहा

फिर भी रहा

अपने दुखों तिलिस्मों संग भेंट हो चला है

धर्मराज

10 August 2022


8 views0 comments

Comments


bottom of page