पथ के बिछुड़े मीत
हो सके तो लौटना
पकड़ लेना फिर से साथ
किस नादानी में बहके बहके जाते हो
देखो न दुर्गम पथ पर बढ़ रहे
साथी के इन सधे पैरों को
समझो तेगा की धार पर
अपने इस साथी के संतुलन को
इसकी दिशाओं के पार उतरती गति को
समय को बेधती चाल को
सुनो उस अंतस के संगीत को
जो इसकी सुरति में तुम्हारे प्राणों में बिंधा था
जियो इसकी उपस्थिति के उस स्वाद को
जो तुमने छका था
बिछुड़े मीत
संध्या बेला निकट है
साथी विदा होने को है
उसका कंठ महासंगीत में गलने लगा है
धीमे धीमे पुकार खो जाएगी
तुम्हारी प्रतीक्षा में लगी उसकी आँख बुझ चली है
आख़िर आँखों को भेंटने अब महाप्रकाश जो चल चुका है
साथी को तुम्हारी फ़िक्र है
तुम्हें जन्मों बीत जाएँगे
फिर ऐसे कालजयी साथ को ढूँढ पाने में
इसलिए
ओ! पथ के बिछुड़े मीत
कठिन है फिर भी
हो सके तो लौटना
धर्मराज
03 April 2023
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