बचपन में गाँव में आई नौटंकी में अबला नारी को क्रूर, कुकर्मी, दुष्ट के द्वारा नगाड़े की आवाज़ पर बुरी तरह से सताया जाता देख ग़ुस्से में आग बबूला हो बैठा रहा। चाह कर भी कुछ न कर सका क्यूँकि जब बड़े-बूढ़े कुछ नहीं बोल रहे तो मैं कैसे बोलूँ!
मन ही मन निश्चय किया कि यह दुष्ट जब यहाँ से जाएगा, तो एक ढेला तो मारकर भागूँगा ही।
जैसे ही पर्दा गिरा, ढेला लेकर मंच के पीछे पहुँच गया।
वहाँ अबला नारी बना आदमी और वह क्रूर दुष्ट मनुष्य बना आदमी हँसते हुए बीड़ी पी रहे थे।
अवाक सा देखता रहा, हाथ से ढेला गिर गया। फिर उन दोनों ने मोबिल आयल वाले खाली डिब्बों को चापाकल से बारी-बारी भरा और बीड़ी का धुआँ उड़ाते हुए मैदान करने अंधेरे में बढ़ गए।
तब से जो दिखता है और जो देखता है उस पर इतना गहरा संदेह हो गया कि, बस देखने वाले और दिख रहे दृश्य का दिखाई पड़ते रहना ही एकमात्र समझदारी का उपाय मालूम पड़ता है।
कौन जाने बाद में जोश में निर्णय लेकर कूटने-कुटने के बाद लोग साथ में बीड़ी पीते हुए मैदान जाते हुए मिलें!
धर्मराज
10/08/23
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