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Writer's pictureDharmraj

अनगढ़िया देवा कौन करे तेरी सेवा - कबीर उलटबासी



अनगढ़िया


अनगढ़िया देवा, कौन करै तेरी सेवा।


गढ़े देव को सब कोइ पूजै, नित ही लावै सेवा।

पूरन ब्रह्म अखंडित स्वामी, ताको न जानै भेवा।


दस औतार निरंजन कहिए, सो अपना ना होई।

यह तो अपनी करनी भोगैं, कर्ता और हि कोई।


जोगी जती तपी संन्यासी, आप आप में लड़ियाँ।

कहैं कबीर सुनो भाई साधो, राग लखै सो तरियाँ॥


समर्पण मात्र ही पर्याप्त है।


रूमी ने साकार उपासना को शामिल करते हुए निराकार उपासना पर बहुत सूक्ष्म व्यंग कसा है। कबीर साहब अनगढ़िया शब्द का इस्तेमाल करके कुछ ऐसी ही बात इस पद में कह रहे हैं। हमने जिस तरह धर्म का दुरुपयोग किया है कि जिसे हम द्वार समझते हैं, वही हमारे लिए दीवार बन गए हैं। समस्या के समाधान के लिए हम जो भी कुछ करते हैं, वह समाधान कम समस्या ज्यादा पैदा करता है। अनगढ़िया का मतलब है, जिसे गढ़ा नहीं गया है, जिसे बनाया नहीं गया है, जो अनबना है।


यह जो दुष्चक्र है, क्या इसमें बार-बार घूमना, वही चालें बार बार चलना, क्या यही जीवन है? हमारे इस अन्वेषण से कुछ अज्ञात, कुछ अज्ञेय की तरफ गति हुई। हमने देवी देवता, स्वर्ग नरक रूपी बहाने गढ़े, हम इतने लाचार थे की स्वतंत्र दृष्टि से हम नहीं देख पाते थे कि समर्पण मात्र ही पर्याप्त है। हमने कुछ बहाने बनाए कि हम समर्पण कर सकें, पर बाद में वह बहाने ही हमारे लिए नए बंधन बन गए। इन बहानों में ही हमने राग द्वेष पाल लिए।


चित्त के ही धरातल पर ना गढ़ना भी गढ़ा जा रहा था। यदि कुछ ना गढ़ना सच में ही हुआ होता, तो चित्त के धरातल पर उसकी सूचना नहीं होती। यहां हम दोनों कल्पना कर रहे हैं, एक चीज के होने की, और एक चीज के नहीं होने की। मैं शेर के होने की कल्पना कर रहा हूं, आप शेर के नहीं होने की कल्पना कर रहे हैं, और एक ही धरातल पर बैर हो रहा है।


यदि मूर्ति के गढ़ने में सत्य नहीं है, तो मूर्ति को तोड़ने की क्या जरूरत है? निराकार की पूजा भी ठीक उसके विपरीत है, जिसे हम साकार कहते हैं। कबीर साहब साकार और निराकार दोनों परंपराओं पर गहरा व्यंग कस रहे हैं।


अनगढ़िया देवा, कौन करै तेरी सेवा - जो 'नहीं बनाया' हुआ निराकार देव है, आखिर उसकी पूजा करने कौन चला है? ये जो अनगढ़िया के नाम पर सेवा चल रही है, यह वास्तव में गढ़े की ही सेवा है। जिसको हम पूजनीय समझते हैं, उसको कुछ सहूलियत देकर के, अपने जीवन में जो हम कृपा के द्वार खोलना चाहते हैं, वह है तथाकथित सेवन या सेवा। यह हम अपने लिए करते हैं, ना कि किसी दूसरे के लिए कर रहे हैं। जिसमें किसी दूसरे पर निगाह है, वह वस्तुतः सेवा नहीं है। सेवा का अर्थ है कि जो शुभ है, उसके लिए हम किसी के माध्यम से, बस द्वार खुलने का अवसर मात्र दे रहे हैं।


कबीर साहब कह रहे हैं कि वह अनगढ़िया देव, जो बुद्धि के द्वारा नहीं बनाया गया है, जिसको बुद्धि के द्वारा सोचा नहीं जा सकता है, उसके प्रसाद के लिए कौन रास्ता बनाता है? साकार निराकार से भिन्न, जो हममें गढ़ने की क्षमता होने से पहले ही, अनगढ़े रूप में व्याप्त था, उस तरफ किसी का रुख नहीं है। जो हमारे गढ़ने के समय, अभी भी, अनगढ़ा बना हुआ है, वह अनगढ़िया देवा है।


गढ़े देव को सब कोइ पूजै, नित ही लावै सेवा - जब हम अपने गढ़े देव की सेवा कर रहे हैं, तो उसमें हमारा अपना स्वार्थ छुपा हुआ है। साकार या निराकार ईश्वर मेरा ही गढ़ा हुआ है। यानी छिपे तरीके से मैं अपनी ही बनावट की पूजा कर रहा हूं। मैं खुद को बना रहा हूं, और खुद की ही पूजा भी कर रहा हूं। बार बार मैं छिपे तरीके से अपने लिए ही काम कर रहा हूं। कैसे मैं बना रहूं, उसके लिए मैंने देव का एक उपकरण बना लिया है।


ह जीना क्या है, जो गढ़न मात्र से मुक्त है?


पूरन ब्रह्म अखंडित स्वामी, ताको न जानै भेवा - अनगढ़िया, अखंड पूर्ण ब्रह्म का रहस्य बुद्धि द्वारा नहीं जाना जा सकती है। कोई भी निर्माण, गढ़न है, वह अपूर्ण होती है। भेवा यानी भेद या रहस्य। जब तक हम गढ़ने वाले को नहीं समझते हैं, तब तक जो भी गढ़ा जाएगा, वो खंडित होगा।


दस औतार निरंजन कहिए, सो अपना ना होई - जो अनबना या अनगढ़िया है, वही बेदाग हो सकता है। दसों अवतार को हमने गढ़ा है, यह हमारी बुद्धि की मान्यताओं पर निर्भर हैं, इसलिए ये झूठ हैं, ये भी मौलिक नहीं हैं।


यह तो अपनी करनी भोगैं, कर्ता और हि कोई - इनके जीवन के सब क्रिया कलाप वह सब हमारे द्वारा गढ़े गए हैं। अपने सोच विचार को ही हम ईश्वर पर प्रक्षेपित कर देते हैं। जिसपर यह पूरा अस्तित्व व्याप्त है, वह अनगढ़िया कोई और ही है, जिसको जानने की हममें प्यास ही पैदा नहीं हुई है।


जोगी जती तपी संन्यासी, आप आप में लड़ियाँ - योगी, ध्यानी, तपि, सन्यासी अपनी अपनी कल्पनाओं में अपना अपना कर्म भोग रहे हैं। यानी जो हम मान लेते हैं, उसी चीज का हम अनुभव करने लगते हैं। हम अपनी ही बनाई हुई कल्पना को भोग रहे हैं। उम्मीद मेरे अंदर पैदा हुई, वो पूरी नहीं होने पर बैर भी मेरे अंदर ही पैदा होता है। उम्मीद और नाउम्मीदी में संघर्ष, द्वंद, मेरे अंदर ही पैदा हो रहा है।


पूजा का अर्थ होता है उसकी तरफ रुख हो जाना, जिसकी तरफ कभी रुख नहीं गया है। जब हम देख लेते हैं कि यहां समाज, राजनीति, धर्म, ईश्वर यह सब हमारा ही बनाया हुआ है, तो जिस तरफ बिना सर घुमाए, सर घूम जाता है, वहां से पूजा शुरू होती है। रुख का बदला जाना पूजा की पहली प्रतीति है। पूजा करी नहीं जाती है, भीतर से पूजा का जन्म होता है।


कहैं कबीर सुनो भाई साधो, राग लखै सो तरिया - यह मैं और मेरे के बीच में जो राग है, उसको ठीक से देख लेने से उद्धार हो जाता है। अनगढ़िया की तरफ रुख है, तो वही प्रेम है, सेवा है, और वही साधना है। वह क्या है हमारे जीवन में जो अनगढ़ा है? इस प्रश्न के सम्यक उठाने मात्र से बने हुए के राग को सम्यक देख करके तरना अपने आप हो जाता है।


गढ़ने वाले और गढ़े जाने वाले के बीच में जो राग है, गढ़ने वाले का गढ़े गए से, या गढ़े गए का गढ़ने वाले से जो राग है, उसको ठीक से देख लेने से उद्धार अनगढ़िया में सहज हो जाता है। अनगढ़िया का बोध नहीं हो सकता है, क्योंकि किसको उसका बोध होगा? हम गढ़े हुए हैं, आज बने हैं कल बिगड़ जाएंगे। गढ़े गए को अनगढ़े का बोध नहीं हो सकता है, क्योंकि जो अनगढ़ा है, उसकी कोई सीमा नहीं है, समय नहीं है, वो आंकड़ों में नहीं है। यह जो गढ़ना है, इसको ठीक से देख लेने भर से, जो अनगढ़े का प्रेम है वह जीवन में व्याप्त पाया जाता है।


राग लखै सो तरिया, जहां गढ़ने की झूठ की प्रक्रिया को देख लिया जाता है, वहीं अनगढ़ा उपलब्ध हो जाता है, वहां सकल भ्रम भंग हो जाता है। यहां सहज ही यह प्रश्न उठ कर के आता है कि वह जीना क्या है, जो गढ़न मात्र से मुक्त है? अभी तो हमारे जीवन में सब चीजें एक दूसरे में अनुस्यूत हैं, जुड़ी हुई हैं, और गढ़ी हुई हैं।


ध्यान अनगढ़ का नाम है, हम गढ़े हुए हैं, ध्यान हो तो सकता है, पर हम ध्यान में नहीं हो सकते हैं। अनगढ़िया ध्यान है, यह देखें कि वह कौन है, जो ध्यान में रहना चाहता है? वह अभी भी ध्यान में होने की परिकल्पना ही कर रहा है, और उसे हमेशा बनाए रखना चाहता है। हम अभी भी ध्यान में नहीं हैं, जब तक हम हैं, ध्यान नहीं है। वह जीना क्या है जो गढ़न से मुक्त है, जो अनबना है, जो बनावटी नहीं है?


जिस ध्यान को हम जानते हैं, वह बनावटी है। अनबने ध्यान को यदि जीवन में अवसर दिया, तो हम नहीं बच पाएंगे; इसलिए हमें अपने अंदर यह अन्वेषण स्थापित करना चाहिए कि वह क्या है, जो गढ़न से मुक्त है, जो अनगढ़िया है?


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