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Ashwin

भक्ति का मारग झीना रे - कबीर उलटवासी का मर्म (अरण्यगीत) - धर्मराज



भक्ति का मार्ग झीना रे।

 

१) भक्ति का मारग झीना रे

 

नहि अचाह है नहि चाहना

चरणन लौ लीना रे

 

साधन केरी रस धारा में

रहे निस दिन भीना रे

 

राम सुधी बसी रे

जैसे जल में मीना रे

 

संत शरण में देखले

कुछ विलम्ब नहि किन्हा रे

 

कहे कबीर मत भक्ति का

परघट करि दिना रे

 

जो विभक्त नहीं है, वह भक्ति का मार्ग बहुत सुक्ष्म या पारदर्शी है। वहाँ चाहना न चाहना बेकार है, अज्ञेय से प्रेम में लौ का लीन होना ही भक्ति का पहला चरण है। भक्ति की अपनी ही रस-धार में भक्त हर वक़्त डूबा रहता है। राम में ऐसा रचा-बसा है कि वो जानता नहीं है कि वो स्वयं क्या है, जैसे मछली पानी में रहती है, पर उससे सदा अनजान भी रहती है। वह संत, साईं या अज्ञेय में बिना किसी विलंब के अर्पित हो जाता है। ‘कबीर’ ये पद अपने से ही कह रहे हैं कि इन शब्दों ने भक्ति को व्यक्त किया है।

 

२) भक्ति यानी जहां पर कोई विभाजन या तोड़ नहीं है, जो विभक्त नहीं है, जो अटूट है। जब तक दो है तब तक जोड़ ही होगा, तब तक विभक्ति ही होगी।

 

झीने का अर्थ होता है महीन, पारदर्शी, जहां आर पार दिखता हो। अटूट को जीने की कीमिया बड़ी महीन है, बड़ी सतर्क दृष्टि की आवश्यकता होती है, तभी उसको जांचा जा सकता है।

 

उस झीने ढंग में अज्ञेय को ना तो आप चाह सकते हैं, और ना ही अचाह सकते हैं। चरण का अर्थ होता है, जहां से शुरुआत होती है। जहां पर टूट का अंत होता है, जहां पर द्वैत बाधित हो जाता है, वहां पर भक्ति शुरू होती है। जहां पर अवलोकन कर्ता, अवलोकन, और जो बीच का स्थान है, वो समाप्त हो जाता है, वहां पर लौ अटूट धारा में लगी रहती है। यहां ज्ञान समाप्त होता है और अज्ञेय शुरू होता है, उस मेढ़ की तरफ रुख है, उस तरफ लौ लगी हुई है; वह रुख जो उस तरफ मुड़ी हुई है, वो जीवन में घटने लगता है। ऐसा देखना जिसमें मेरी कोई भूमिका ही नहीं है, वह भक्ति है, जिसमें रुख जहां से अज्ञेय शुरू होता है, वहां जाकर के टिक गया। असंभव प्रश्न के साथ जीना, परा भक्ति है।

 

३) यह लौ लगना ही एकमात्र साधना है, जो सधने में ही पूरी तरह से रस से भरी हुई है, उसमें नित्य जीवन भीगा हुआ है। इसमें मंजिल ही यात्रा है, या यात्रा ही मंजिल है। हम कुछ से जुड़ते हैं, तो बाकी सब से टूट जाते हैं।

 

राम यानी अज्ञेय की सुध ऐसी बसी है, जैसे जल में मछली बसती है। मछली पानी में रहती है पर उसको जानती नहीं है। यह जो सुध है उसका रस बहता है, पर वो सुध बोध में नहीं आती है। मिला कुछ नहीं है, पर आनंद छलक छलक जाता है। जहां पर अज्ञेय को हृदय में उतार लिया गया है, वहां पर सुध राम की तरफ लौट पड़ी है। जब विभक्ति को अच्छी तरह समझ लिया जाता है, तो अपने आप धारा उस तरफ मुड़ जाती है जो भक्ति है। जो रमा हुआ नहीं है, उसको समझने मात्र से, दृष्टि अपने आप उस तरफ मुड़ जाती है, जो रमा हुआ ही है, जो राम है।

 

ध्यान लगाना नहीं पड़ता है, वह दृष्टि वहां पर राम में जाकर बस गई है, पर फिर भी मुझे उसका कुछ पता नहीं है। पोटली में कुछ भर के दे रहे हैं, फिर बाद में पोटली खींच लेते हैं। इस तरह साथ-साथ चलने में कोई विलंब नहीं किया है, यह भक्त की स्थिति है। हम विलंब तब करते हैं, जब हम समझते हैं कि जो हम करने जा रहे हैं, उससे महत्वपूर्ण अभी कुछ और है, करने के लिए। कबीर कहते हैं कि साधो के संग में जरा सा भी मैंने कोई विलंब नहीं किया है, जैसे ही समझ में आया, सब कुछ एक साथ दांव पर लगा दिया।

 

४) यह जो भक्ति है, यह अपने आप से प्रकट हुई है, उसमें जरा सा भी विलंब मैंने नहीं किया है। भीतर जाने का तो कोई मार्ग ही नहीं है, और अगर कोई मार्ग जैसी चीज है भी, तो उसमें एक साथ ठीक विपरीत भी शामिल है। अगर ठीक विपरीत शामिल नहीं है, तो जो अभी है, वह भी सत्य नहीं है। सत्य का ये लक्षण है कि वह ठीक विपरीत को शामिल किए हुए है। आरण्यक शब्द का अर्थ है कि जहां पर ठीक विपरीत शामिल हो जाए, सारे मार्ग वहां मिल जाएं, या वहां पर कोई मार्ग ही नहीं है।

 

कबीर साहब अद्भुत हैं, वो ठीक विपरीत को स्वीकार किए हुए हैं। अद्वैत में काला सफेद तो बस दो अलग नाम हैं। ऐसा झीना होना, जिसमें महीन से महीन भी कुछ अटके नहीं, सब बाहर हो जाए।


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