प्रश्न - कृपया माता सीता के पात्र पर प्रकाश डालें।
माता सीता के पात्र से श्रेष्ठ कोई पात्र नहीं है, विशेष कर स्त्रायन चित्त की भूमिका समझने के लिए। पुराणों में तीन पात्र यहां जन मानस में बहुत महत्वपूर्ण हैं, मीरा, राधा और सीता। तीनों अद्भुत हैं, और तीनों का प्रेम देश काल का अतिक्रमण कर जाता है।
मीरा ने कृष्ण को अपना पति मान लिया और आजीवन उनकी पत्नी बनी रहीं, मीरा की बात ही आलौकिक है। जब आप किसी पौराणिक पात्र को अपना आदर्श मान लेते हैं, तो एक छोटी सी कमी रह जाती है कि वह पात्र आपके द्वारा तय किया गया है। चित्त की श्रेष्ठतम संभावना को आप आराध्य बना लेते हैं, और वह पात्र आपसे कुछ कहता नहीं है। यह चित्त के आधार पर बने संकल्प की पराकाष्ठा है। राधा पत्नी किसी और की हैं, कृष्ण से उनका संबंध प्रेमी और मित्र का ज्यादा है।
सीता का शाब्दिक अर्थ होता है, हल के द्वारा जमीन पर खींची गई रेखा, जो सौभाग्य का प्रतीक है। माता सीता ने एक ऐसा रास्ता लिया, जिससे मनुष्य चेतना में परम सौभाग्य के द्वार खुल गए। मीरा, राधा और सीता तीनों का प्रेम विवाह हुआ है, तीनों ने अपने वर को अपनाया है, और उसके बाद उनके सारे चुनाव समाप्त हो गए। ऐसा नहीं की सीता किसी का अनुगमन कर रही हैं, पर उनके जीवन में अन्यथा समाप्त हो गया। राम के अतिरिक्त कुछ और होता है यह बात ही समाप्त हो गई, उनके जीवन में निर्विकल्प स्वीकार है।
महारानी होने जा रही है और उनको वनवास का रास्ता चुनना पड़ता है उसमें उनको बिल्कुल भी कोई दुविधा, किंतु, परंतु नहीं है। सीता अपनी तरफ देखने वाली स्थिति है कि जीवन जो भी प्रस्तुत कर रहा है, वह स्वीकार है। प्रश्न उठता है कि कुछ चुन करके, आखिर हम बचाते भी क्या हैं? हमारी दृष्टि बाहर गामी है दूसरे को देखकर के मेरा हित जिसमें है, उसको चुनते हैं। सीता वन गमन चुनती हैं, इसका अर्थ है कि बाहर जो प्रतिकूल और अनुकूल है, उसका अतिक्रमण करके वह जीवन जी रही हैं; वह सम्यक रूप से सन्यासिनी हैं। वह चेतना उस तरफ गति कर रही है जिस तरफ मन बुद्धि चित्त अहंकार ज्ञात माया आदि सारी सीमाओं का अंत हो जाता है।
माता सीता औपचारिक ढर्रों और बनावटीपन से हट करके, अतिक्रमण की ओर जा रही हैं। माता सीता हर तरह के प्रलोभन दिए जाने पर भी अडोल हैं। राम जब कहते हैं कि घर छोड़ दो, तो वह उसको भी स्वीकार कर लेती हैं। आज के संदर्भ में प्रिय की अवहेलना करके हम जाते कहां हैं? हम दुख की लाश एक कंधे से हटा के दूसरे कंधे पर रख लेते हैं। हम एक विकल्प छोड़कर के दूसरा विकल्प चुन लेते हैं, पर जो निर्विकल्प स्थिति के माध्यम से, जो उसके पार का द्वार खुल सकता है, वह तो कभी नहीं खुल पाता है।
हम समझते हैं कि सीता के साथ अत्याचार हुआ। पर वास्तव में वन गमन करने में और राज महल में रहने में, इनमें नैसर्गिक रूप से कोई बुनियादी भेद नहीं है। सारा फर्क सिर्फ मानसिक रूप से बनाया गया है। सीता का राजमहल से हटाए जाने का सब ने विरोध किया, पर सीता ने इसका बिलकुल भी विरोध नहीं किया। इस लीला के माध्यम से एक संदेश है, जीवन का चुनाव रहित या निर्विकल्प स्वीकार।
मीरा का प्रेम एक तरफा है, वह अपने भाव कृष्ण पर आरोपित कर सकती हैं। सीता संबंधों के दर्पण में पुष्ट हुई हैं, उसमें उन्होंने अपने व्रता होने का प्रमाण दिया है। संबंधों के दर्पण में असलियत पता चलती है। सीता की दृष्टि से, यह एक चेतना की स्थिति है, जहां यह देख लिया गया कि मेरा कोई भी चुनाव महत्वहीन है। जो भी जीवन की स्थिति सम्मुख है, उसमें उनको कोई दुविधा नहीं है, वही मुक्ति का द्वार है। उनके माध्यम से यह पूरी मनुष्य चेतना के लिए एक रास्ता बना हुआ है।
ऐसा नहीं है की सीता का शोषण हुआ है, सीता का शोषण तो तब होता, जब उन्होंने कहा होता कि मेरा शोषण हुआ है, क्योंकि सीता अपनी तरफ देखती हुई चेतना का नाम है। जिसने यह समझ लिया कि राजमहल को चुनना या वन को चुनना दोनों एक ही बात हैं, यानी संबंधों के दर्पण में निर्विकल्प समर्पण ही मुक्ति का द्वार है; उसको सहज ही वह उपलब्ध हो जाता है जो मन के पार है। राम बाद में परमात्मा होंगे, सीता परमात्मा का दूसरा नाम हैं। वो जिसका चित्त निर्विकल्प स्वीकार से आपूर है, वही तो परमात्मा है। जिस क्षण जीवन जैसा है वैसा ही, निर्विकल्प रूप से स्वीकार हो जाता है, तो हमारे जीवन में सौभाग्य के द्वार खुल जाते हैं।
जो हमारी बंजर भूमि है, उस पर सौभाग्य की एक हल्की रेखा खींच जाती है, सीता का जन्म हो जाता है। कथा है कि राजा जनक का हल जोतते हुए सीता का जन्म हुआ था। इस बंजर जमीन पर सौभाग्य की पहली लकीर सीता हैं। सीता ने जीवन को निर्विकल्प स्वीकार किया है, बाकी सब तो कथा कहानी है। जो निर्विकल्प स्वीकृत चेतना है वही परमात्मा है; किंतु, परंतु, दुविधा यदि आती है, तो वह इंसान है।
कहते हैं कि सीता को अपने में सामने के लिए धरती फट गई; उन्होंने आव्हान किया और धरती में सदेह ही चली गईं। यानी वह जीवन मुक्त हो गईं, वो जो जीते जी मुक्त है। जहां भी निर्विकल्प स्वीकार है, वह जीवन मुक्त है, उसके लिए सारी चीजें लीला हैं। सीता की महिमा का कोई सानी नहीं मिलता, वो भक्ति की पराकाष्ठा हैं। सीता की भक्ति को समझने के लिए कुछ थोड़ा दूसरा ही चित्त चाहिए। निर्विकल्प स्वीकार तभी हो सकता है, जब जीवन में अपनी तरफ देखा जा रहा हो, और मैं की पूरी भूमिका को विसर्जित कर दिया गया है; तभी सीता के चरित्र को समझा जा सकता है।
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प्रश्न - मैं अपने एक दोस्त को बहुत मानती हूं, पर जब भी उससे किसी अन्य का नाम सुनती हूं तो बहुत बुरा लगता है, ऐसा क्यों है?
आप मानती हैं, पर आपने वहां प्रेम को अवसर नहीं दिया है। हम चाहते हैं कि सामने वाला हमारे लिए उपस्थित रहे। सीता की स्थिति में सामने वाले से कोई मतलब नहीं, मैं कैसे अर्पित रहूं उसका महत्व है। दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। हम चाहते हैं कि अस्तित्व मेरे अनुरूप काम करे, यही दुख का कारण है, और यह बात प्रेम के विपरीत है। भक्त अपनी तरफ देखकर के संकोच करता है कि मेरी बिसात ही क्या है, और खुद ही समाप्त हो जाता है।
भक्त अस्तित्व में विसर्जित हो जाता है, वह जो करना चाहे करे, मेरी भूमिका समाप्त हो गई है। हम एक फ्रेम में दो तस्वीर को मिला कर के टांग देते हैं, जबकि यथार्थ में जीवन का अर्थ है कि अपनी तस्वीर को ही गला देना। खुद को समर्पित कर देना, कौन सामने है, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता; गलने का अपना ही एक आनंद है। भ्रमित बुद्धि सुझाव देती है कि यदि हम गल गए तो हम कहीं के भी नहीं रहेंगे; यह बात सच नहीं है। जिस क्षण हमारी भूमिका समाप्त हो जाएगी, वहां अस्तित्व विद्यमान हो जाएगा।
हम खुद बने रहकर के आसपास चीजों में सुविधा चाहते हैं, वही दुखों का कारण है। हमारे दिमाग में न जाने कितनी तस्वीरें बन और बिगड़ रही हैं, जैसे की वह रेत पर बनी हुई हैं। यह सब सतही जीवन के लक्षण हैं, एक भेड़ चाल है। गहरे में बिना नाम के, बिना तस्वीर के, यदि जीवन है, तो आप सकल अस्तित्व से जुड़े हुए हैं। नैसर्गिक संबंध में जब टूटने का उपाय ही नहीं है, तो कहां कोई बिछड़ सकता है और कहां कोई मिलता है? फिर हर संबंध एक उत्सव का उपाय है।
अपनी तरफ देखने की जरूरत है कि मैं किस तरह का जीवन जी रहा हूं, जहां कुछ शब्द ही मुझे कंपा देते हैं। जब हम नाम सोचते हैं तो हम नाम हैं, जब हम रुपया सोचते हैं तुम रुपया हैं, जब हम कुछ नहीं सोचते हैं तब हम कुछ नहीं हैं; और जब हम ना कुछ सोचते हैं और ना कुछ नहीं सोचते हैं, तो फिर जो कुछ भी है वह सत्य है, वह हमारे पार की बात है।
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यदि किसी को पता है कि वह राधा है मीरा है या सीता है तो वह वास्तव में वह नहीं है, वहां पर किसी की नकल करी जा रही है। कुछ और घट सकता है, पर दूसरी सीता नहीं हो सकती है। जब निर्विकल्प स्वीकार है, तो आप ही नहीं होते हो। सीता के पीछे तो कोई व्यक्तित्व तो था ही नहीं, बल्कि सकल अस्तित्व था। परमात्मा के अलावा और कहीं निर्विकल्प स्वीकार नहीं हो सकता है। गौर से देखें कि क्या हम सीता की छवि अपना रहे हैं, या वास्तव में जीवन हमें निर्विकल्प स्वीकार है। जो है जैसा है, यदि वह स्वीकार है, तो आप किसी भी भ्रम में नहीं टिक पाएंगे, तो कोई भ्रम आपके जीवन में जगह नहीं ले पाएगा।
सीता को कभी शोक नहीं हो सकता है, यथार्थ में सीता अशोक है। जब उनका अपहरण भी हो जाता है, तब भी वह अशोक से घिरी ही रहती हैं। कोई रावण सीता को शोक में नहीं ला सकता है, वह जहां रहेंगी वहीं अशोक वाटिका निर्मित कर लेंगी। यदि हमारे जीवन में शोक है, तो कुछ ना कुछ चुनाव हो रहा होगा। जिसमें किसी आदर्श के अनुरूप अपनी व्याख्या करने का प्रयास चल रहा होगा।
सीता के जीवन से दूसरा कदम समाप्त हो गया है, सीता पहले उठे हुए कदम का दूसरा नाम है। सोच विचार की जरूरत तब पड़ती है जब हमारे जीवन में विकल्प हैं, सीता के पास कोई विकल्प नहीं है। सीता के लिए वन में रहना या महल में रहना दोनों एक जैसा है, क्योंकि जो विकल्पों के पार का जीवन है, वह वहां उपस्थित हो गया है। जागे हुए को इस सपने में, या उस सपने में, कोई भेद नहीं रहता है। जागे हुए के लिए सपना समाप्त हो गया, यदि जागा हुआ सपने की व्याख्या कर रहा है, तो उसे चाय पीने की जरूरत है।
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प्रश्न - क्या आज की जो नई पीढ़ी है वह निर्विकल्प स्वीकार जैसी बात समझ पाएगी?
ये चुनौती ही ऐसी है कि इसके अलावा और कोई समाधान है ही नहीं। रोने धोने में जो ऊर्जा व्यर्थ हो जाती है, हम उसके बाद स्वीकार करते हैं, यदि उसके बिना ही स्वीकार आ जाए, तो वही ऊर्जा क्रांति कर जायेगी। वही ऊर्जा, जो मन के पार जीवन है, उसको उघाड़ देगी। यह देखिए कि जो आप चुनने जा रहे हैं, उसकी वैधता क्या है? जो चुनने जा रहा है, उसका धरातल क्या है? जो चुनता है वही निष्प्राण है, तो वो सही ढंग कैसे चुन पाएगा?
अब बाहर जो भी कुछ होता हो वो हो, बस मैं अपनी तरफ देख रहा हूं, तो जो पहले जोड़ने या तोड़ने का ढंग था, वह छूटता चला जाता है। वह जो चुनने वाला है, जो उसका ढंग है वह ही आउटडेटेड हो गया; इससे जो सतत है वह जीवन में उतरता चला जाएगा, या उतरा हुआ पाया जाएगा। जैसे ही पाया गया कि दूसरा कदम व्यर्थ है, तो जो फिर भी बचा रहा, वह केवल पहला कदम ही रहेगा।
यह कला कैसे किसी और को बताएं, यह कौशल तभी आ सकता है, जब आप स्वयं उसमें रहते हो। हो सकता है आपकी उपस्थिति से यह संदेश दूसरों तक पहुंच जाए कि विकल्पों में जिया जीवन बहुत दूर नहीं ले जा सकता है। यह नहीं कहा जा रहा है कि परिवार को छोड़ना है या पकड़ता है। यदि आप कुछ भी पकड़ने या छोड़ने की प्रक्रिया में ही हैं, तो इसका मतलब है कि आप अभी भी विकल्पों में ही उलझे हुए हैं। बस इतना देख लीजिए की विकल्पों में कुछ भी नहीं है।
सही मायने में देखा जाए तो शोषण से मुक्ति का रास्ता माता सीता ने ही दिखाया है। अन्यथा हम शोषण इससे नहीं, तो उससे करवाते हैं। हमारा ढंग ही शोषणात्मक है, जो किसी दूसरे पर निर्भर है, जो शोषण करने या करवाने के लिए बाध्य है। जैसे ही मैं किसी को अपने ऊपर निर्भर बना रहा हूं, तो मेरा शोषण होना स्वाभाविक है।
लाउत्से भी कहते हैं कि मुझे कोई अपमानित नहीं कर सकता क्योंकि मैं बैठता ही वहां पर हूं, जहां सब जूते उतार के रखते हैं। इस बोध से ऐसे आचरण का निर्माण होता है, जो किसी भी तरह के भय को जगह ही नहीं देता है। अगर आप चुनाव रहित समर्पित हैं, तो आपके जीवन में शोषण, भय, असुरक्षा असंभव है। चुनाव रहित स्वीकार की स्थिति अज्ञेय में ही जाकर के विलीन हो जाती है।
किसी संबंध में बने रहने का जो आग्रह है, या फिर किसी संबंध में बने रहते हुए कहीं और कोई विकल्प जो आपको दिखाई दे रहा है, यह दोनों ही बातें आपको भटका देंगी। जो भी विकल्प आपके अंदर निर्मित हो रहे हैं, वह जीवन का आधार नहीं हैं। यहां पर चुनाव रहित होने का मतलब है, जो अखंड है उसका पाया जाना घटित होने लगा, यानी यहां पर रस समाप्त हो गया। किसी को पकड़ना हो पकड़िए, किसी को छोड़ना हो छोड़िए, या फिर बीच में रहीये, उसमें कोई आग्रह नहीं है, बस इतना समझ लीजिए कि आप जो भी करेंगे वह दूसरा कदम ही होगा। जो भी आपने अभी तक किया है, करेंगे, या कर रहे हैं, वह दूसरा कदम ही है; यह है निर्विकल्प स्वीकार।
यदि कोई स्वीकार भी मेरे द्वारा किया जा रहा है तो वह सविकल्प स्वीकार है, वह दूसरा कदम है। निर्विकल्प स्वीकार अपने से घटता है, मैं नहीं घटा सकता उसको। मैंने बस इतना देखा कि मैं केवल सविकल्प स्वीकार ही कर सकता हूं।
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प्रश्न - आप अपनी बात रखने के लिए, हमारी सारी बातों का खंडन क्यों करते हैं?
मैं आपकी बात का खंडन कर रहा हूं यह आधा सच है, मैं अपनी भी बात का खंडन कर रहा हूं, यह पूरा सच है। जो भी बात कही जा रही है वह सिर्फ इशारा है, उसकी जो व्याख्या आपके अंदर निर्मित हो जाती है, वह आपके ही पैरों में पत्थर की तरह बंधन बन जाती है। कालांतर में मैं बहुत विरोधाभासी प्रतीत हो सकता हूं क्योंकि मेरी कोई भी मंशा नहीं है कि कोई शिक्षा आपके दिमाग में भर दी जाए। साथ चलते हुए सीधे बाहर निकलना है, ना की कोई सिद्धांत विकसित करना है। सिद्धांत बनाने में तो हम बहुत कुशल हैं, सिद्धांत बनाकर के रख लेंगे और समझेंगे कि जान गए।
जो भी सुना, यदि वह दिल से सुना गया, तो वह आपके जीवन का हिस्सा हो गया, फिर उसे भूल जाइए, फिर उसे याद रखने की या पकड़ने की कोई आवश्यकता नहीं रही। सिर्फ साथ में चलना आवश्यक है, सुना, ग्रहण किया, और फेंक दीजिए फालतू के सारे शब्द और व्याख्याओं को। यदि आप सुझाव और विचार इकट्ठा करने में लग जाएंगे, तो आपकी सारी ऊर्जा उनको संजोने में ही चली जाएगी। पूरे होशो हवास में सुना, फिर तुरंत छोड़ दीजिए उसको। सुन लिया कुछ भी हाथ नहीं लगा, पर जो उसकी अंतर्दृष्टि होगी, वह अपने आप ही काम करेगी; इसीलिए सत्संग का महत्व है, यहां ऐसी कोई भी मंशा नहीं है कि आप ज्ञानी हो जाएं।
यदि आप कृष्णमूर्ति की बातों के ज्ञानी हो गए, तो आप ऐसी तलवार साथ लेकर के चल रहे हैं, जिससे आप सबको धाराशाई कर देंगे। किसी भी सिद्धांत के यदि केवल तर्क ग्रहण कर लिए, तो बहुत घातक हो सकता है। यदि आप किसी भी शिक्षाओं के ज्ञानी हो गए तो आपको तर्क से हराना मुश्किल हो जाएगा, और जितना आप नहीं हारेंगे, उतना ही आप मजबूत होते चले जाएंगे, कि जो मैं समझ रहा हूं वही ठीक है; और जिंदगी उन्ही खाइयों की गर्त में गिरती चली जाएगी। इसलिए ज्ञानी होने की बिलकुल जरुरत नहीं है, बात समझी, अंतर्दृष्टि बनी, फिर उसे भूल जाएं, उसके बाद वो अंतर्दृष्टि अपने आप काम करेगी।
दूसरे कदम से मुक्त होकर के जीना क्या है? निर्विकल्प स्वीकार हम नहीं कर सकते, क्योंकि हम सविकल्प स्वीकार की मूर्ति हैं; इस समझ में निर्विकल्प स्वीकार सहज रूप से जीवन में जगह लेने लगता है।
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