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Ashwin

राम गुण न्यारो न्यारो न्यारो (कबीर उलटवासी का मर्म)



राम गुण न्यारो न्यारो न्यारो


राम गुण न्यारो न्यारो न्यारो

अबुझा लोग कहाँ लौं

बूझ बूझनहार विचारो

राम गुण न्यारो न्यारो न्यारो


केते रामचन्द्र तपसी सों

जिन यह जग बिटमाया

केते कान्ह भए मुरलीधर

तिन भी अंत न पाया


मत्स्य कच्छ वाराह स्वरूपी

वामन नाम धराया

केते बौद्ध भए निकलंकी

तिन भी अंत न पाया


केते सिद्ध साधक संन्यासी

जिन बनवास बसाया

केते मुनि जन गोरख कहिए

तिन भी अंत न पाया


जाकी गति ब्रह्नैं नहिं पाई

शिव सनक़ादिक हारे

ताके गुण नर कैसे पैहों

कहै कबीर पुकारै


राम गुण न्यारो न्यारो न्यारो

अबुझा लोग कहाँ लौं

बूझ बूझनहार विचारो

राम गुण न्यारो न्यारो न्यारो


राम गुण न्यारो न्यारो न्यारो।


एक आदिवासी को दर्पण मिला, जो कि उसने जीवन में पहली बार देखा था। जिसने भी उस दर्पण में देखा उसने उससे अपना ही अर्थ निकाल लिया, जबकि दर्पण में अपना कोई अर्थ नहीं होता है। दर्पण सिर्फ वही दिखा सकता है, जो आप होते हैं जैसा आपका चेहरा होता है।


इसी तरह साहब का कोई गुण हमारी बुद्धि को समझ में नहीं आ सकता है। कबीर साहेब जब राम की बात करते हैं, तो वह दशरथ पुत्र राम की बात नहीं कह रहे हैं। जब उन्हें कुछ संबोधन करना होता है, तो उनकी जो मौज होती है वे वह शब्द चुन लेते हैं, कभी साहब, कभी साईं, कभी राम या कभी सत्य। यहां जब वह राम कहते हैं तो उसका अर्थ है, "रमते इति रामा", जो सारी सृष्टि में समाया हुआ है। राम का गुण समय से परे है, वह त्रिकाल सत्य है।


जो दस अवतार की मान्यता है, उस पर कबीर साहब ने करारा प्रहार किया है और कहते हैं कि यह गुण या काम, साहब के नहीं हो सकते हैं। साहब कहते हैं कि जो राम गुण जो परमात्मा जो सत्य है, उसकी उपस्थिति बिल्कुल न्यारी है, वह बुद्धि की किसी भी व्याख्या से बिल्कुल अनूठी है।


अबुझा लोग कहाँ लौं बूझ बूझनहार विचारो।


जो नादान लोग हैं वह उसको कैसे समझ सकते हैं। जब हम कहते हैं कि कोई ईश्वर का अवतार है, तो वह बात नादानी की है, जो परम सत्य है वह उतने में ही नहीं समा सकता है। साहेब कह रहे हैं कि जो तुम निष्कर्ष पर आ रहे हो, उसको थोड़ा समझो तो सही, थोड़ा ठहरो तो सही।


अगर खोज ही करनी है अन्वेषण ही करना है, तो वह कौन है जो खोजने चला है, जरा उसकी तरफ नजर डालो। यदि उस तरफ आपकी नजर चली गई कि जो खोजने वाला है वही भ्रम है, तो आप ऐसी नादानी नहीं करोगे कि जो परम सत्य है उसकी व्याख्या करने का प्रयास करो। जो व्याख्या करने चला है सत्य की, वही मिथ्या है, यह भली भांति समझ लेना ही सबसे सटीक कर्म है। यही जीवन में होश को अवसर देने का सबसे सटीक ढंग है। हम आप जो मिथ्यत्व से बने हैं, वह सत्य की परख नहीं कर सकते हैं।


जो बूझनहार है, यानी जो खोजने वाला है, जो मिथ्या है, उसको सत्य का कभी पता नहीं चल सकता है। सत्य के अवलोकन में बूझनहार विसर्जित हो जाता है, और जो सत्य है वह वहां पर पाया जाता है।


किसी आदर्श का अनुसरण अहम पुष्ट करता है।


केते रामचन्द्र तपसी सों

जिन यह जग बिटमाया

केते कान्ह भए मुरलीधर

तिन भी अंत न पाया


भगवान राम ने एक आदर्श चरित्र रखा है एक पुत्र एक भाई एक पति के रूप में। कबीर साहब यहां कह रहे हैं कि किसी भी आदर्श चरित्र में भगवत्ता समा नहीं सकती है, क्योंकि भगवत्ता अति विराट है, वह किसी सीमा में सीमित नहीं करी जा सकती है। वह भगवान राम की आलोचना नहीं कर रहे हैं, बल्कि वह इशारा कर रहे हैं कि जो हमारे अंदर किसी आदर्श का अनुसरण करने की जो वृत्ति है, वह भ्रामक है। किसी आदर्श का अनुगमन करके हम समझते हैं कि हम सत्य को जी रहे हैं, तो वह रास्ता ही भूल भरा है।


साहेब कह रहे हैं कि जितना आप किसी आदर्श का अनुसरण करोगे, उतना ही आप अपने अहम को पुष्ट करोगे। यह मैं की भ्रामक सत्ता किसी आदर्श का अनुसरण करने में अपने आप को बहुत शक्तिशाली समझती है। मेरे जैसा चरित्रवान, धार्मिक और कौन हो सकता है, इसमें अहंकार और मजबूत होता है। जिन्होंने आदर्श पुरुषार्थ के लिए तपस्वी का जीवन भी स्वीकार कर लिया, वह भी जो "रमते इति रामा" है, उस गुण को छू नहीं पाए। साहेब कह रहे हैं कि जो आदर्श पुरुष राम हैं, उनके जीवन में भी, जैसा सत्य है वैसा नहीं उतर पाया, वो भी उसकी व्याख्या नहीं कर पाए।


कबीर साहब कहते हैं कि कृष्ण, जिन्होंने अनंत लीला करी है, जिन्होंने किसी आदर्श जीवन को नहीं जिया है, जैसा उपयुक्त है वैसा किया, इस तरह के जीवन यापन में कृष्ण श्रेष्ठतम बैठते हैं। कृष्ण किसी आदर्श का अनुसरण नहीं करते हैं, पर सभी आदर्श उनमें समाए हुए हैं, उनमें सभी तरह की कलाएं समाहित हैं। साहेब कह रहे हैं कि बेशक उन्होंने विपरीत को भी अपने में समा लिया है, फिर भी भगवत्ता कि वह पूर्ण व्याख्या नहीं करते हैं।


किसी भी जीवन चरित्र को आदर्श मत बना लीजिए, बल्कि जो किसी जीवन को आदर्श बनाने चला है, उसकी तरफ देखिए। उसकी तरफ देखने से, उसकी पहचान में, शायद सत्य को अवसर मिल सकता है। वह न्यारा वहां पाया जाता है, जहां पर अहम बचा नहीं रहता।


जो समझना चाहता है, उसको पहचानो कि वो क्या है?


मत्स्य कच्छ वाराह स्वरूपी

वामन नाम धराया

केते बौद्ध भए निकलंकी

तिन भी अंत न पाया


हमारा मन मल से भरा हुआ है, वहां से भी उसे निकाल कर ला पाने वाले को, सांकेतिक रूप से अवतार की श्रेणी में रख रहे हैं। वह बुद्ध के अवतार और उपदेश में भी नहीं समाता है। ना वो आत्मा, पूर्ण की व्याख्या में, और ना ही वो अनात्मा, शून्य की व्याख्या में समाता है। शास्त्रों, शब्दों, संकेतों के जंजाल में सत्य नहीं घेरा जा सकता है। जो भी हम समझते हैं, उसमें कभी भी सत्य नहीं हो सकता है। सत्य सच में ही है, हम जो भी सोच सकते हैं, वो एक धारणा ही हो सकती है।


केते सिद्ध साधक संन्यासी

जिन बनवास बसाया

केते मुनि जन गोरख कहिए

तिन भी अंत न पाया


चाहे कितने भी सिद्ध, साधक, संन्यासी, बनवासी, संत, मुनि, रहे हों, पर उन्होंने भी सत्य को नहीं पाया है। बातों में, संकेतों में नहीं पाया है, पर जीवन में उतर जाना अलग बात है। किसी भी व्याख्या में सत्य नहीं समाता है, वह कह कह कर भी अनकहा रह जाता है।


जाकी गति ब्रह्नैं नहिं पाई

शिव सनक़ादिक हारे

ताके गुण नर कैसे पैहों

कहै कबीर पुकारै


ब्रह्मा जहां से चित्त, सोचने की भी शुरुआत होती है, वह धरातल ही झूठ है, इसलिए सत्य वहां भी नहीं पाया जा सकता है। जो हमारी बनावट के अनुरूप है, हम केवल उसको ही जान सकते हैं, सत्य को नहीं। सीमित बुद्धि में सत्य की व्याख्या कैसे हो सकती है? बुद्धि या मैं से सत्य को पाने की दौड़ ही झूठ है। देखने मात्र से ही जब मैं की सत्ता गल जाती है, तो इसका अर्थ है वो सत्ता ही झूठ है। शिव तक हार गए हैं और उसकी व्याख्या नहीं कर पाए हैं।


उसका गुण, उसका होना, उसकी प्रतीति, हम कैसे पा सकते हैं? यह कहकर कबीर साहेब ने सारे धर्म संगठनों, बुद्धत्व, मूढ़त्व, आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान आदि का एक साथ निषेध कर दिया है। जो भी हम समझ बूझ सकते हैं, वो सच नहीं है। जब तब कोई समझने वाला है तब तक मौलिक समझ जगह नहीं ले सकती है। कोई अनुभव, सिद्धि, कुंडलिनी, यह साहब के गुण नहीं हैं, यह साहब की तरफ जाने वाला मार्ग नहीं है।


उसका गुण तुम नहीं पा सकते हो इसीलिए कबीर साहब कहते हैं "बूझनहार विचारो", वह जो यह समझना चाहता है, उसको पहचानो कि वो क्या है, उसपर अवलोकन ले कर के आओ। राम का गुण, राम से भी न्यारा है। जो परम सत्य है उसका गुण न्यारा है, वह बुद्धि के तीनों कालों से परे या न्यारा है। कुछ आप जानते हैं, कुछ सीख रहे हो या सीख लोगे, साहेब कह रहे हैं कि राम का गुण इसमें आता ही नहीं है।


सत्य का बोध आपको हमको नहीं हो सकता है, पर फिर भी साहेब कहते हैं कि "बूझनहार विचारो", जो पता करने चला है उसपर सम्यक दृष्टि है, तो राम गुण जीवन में पाया जाएगा पर आप उसे बूझ नहीं पाएंगे। उस सत्य को बुद्ध, कृष्णा, ब्रह्म, शिव, गोरख नहीं बूझ पाए हैं, ना बुझा जा सकता है, तो हम या आप क्या बूझेंगे।


अबुझा लोग कहाँ लौं

बूझ बूझनहार विचारो

राम गुण न्यारो न्यारो न्यारो


हम नादान लोग उसको बूझ नहीं सकते हैं। पर बूझनहार के सम्यक दर्शन में हो सकता है कि वह उतर सके, वो जगह पा सके, जो सत्य है। उपनिषद कहते हैं -


न अयम् आत्मा प्रवचनेन लभ्यः न मेधया न बहुना श्रुतेन,

यम् एव एषः वृणुते तेन लभ्यः, तस्य एषः आत्मा विवृणुते तनुम् स्वाम्॥ 23


आत्मा या परम सत्य की प्राप्ति प्रवचनों से नहीं होती, न बौद्धिक रूप से होती है, न अधिक विद्या, ज्ञान प्राप्त करने से या सुनने से होती है। यह आत्मा जिसका स्वयं ही वरण करता है, उसे यह अपने रूप को दिखा देता है। व्याख्या, मेधा, प्रवचन, सुनने से यह मिलता ही नहीं है, जो व्याख्या से आया ही नहीं है, तो उसकी व्याख्या कोई कैसे कर सकता है।


कबीर साहेब की वाणी, अपने में ही उपनिषद है, उनका संकेत करने का अपना जरा मौजू, एक अनूठा ढंग है।


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