ध्यानशाला सुबह का सत्र, 20 नवंबर 2024
समय के खंडों से मुक्त जीना क्या है? वह जीना क्या है, जो समय के सभी खंडों से मुक्त है?
जीवन के दो धरातल नहीं हैं। दो धरातल के भ्रम ने ही मैं के तिलस्म को पैदा किया हुआ था। तथ्य के ठीक से देखने में ही, उसका निदान और समाधान है। आज तक जहां खंडित जीवन या मैं का एहसास हृदयंगम था, ठीक वहीं पर यह तथ्य हृदयंगम हो सकता है कि यह जीवन खंडित नहीं है, यहां दो धरातल नहीं हैं, यहां दो समय नहीं हैं।
जीवन का वह धरातल क्या है जो सभी खंडों से मुक्त है? अखंड में मैं का एहसास ही नहीं बनता है। समय का मतलब ही है, दो ढंग का होना। समय का मतलब ही मैं है, दुविधा का होना है।
अब्दुल जब छोटे बच्चे थे तो उनकी मां ने चालीस अशर्फियां उनको दीं और कहा कि कुछ भी हो जाए पर तुम सत्य का दामन कभी नहीं छोड़ना। उनके काफिले को जब डाकुओं ने लूटा, और उनसे जब पूछा कि तुम्हारे पास भी कुछ है, तो अब्दुल ने बता दिया कि मेरे पास चालीस अशर्फियां हैं। झूठ के प्राण कंपते रहते हैं, सत्य की अपनी एक ताकत होती है।
जैसे दो धरातल नहीं हैं, दो समय नहीं हैं, वैसे ही दो कर्म नहीं हैं। कर्म सिर्फ एक है, जीवन में उस धरातल को अवसर दे देना जिसमें समय नहीं है, जिसमें कोई खंड नहीं है, जहां मैं नहीं है। यदि यह स्पष्ट है कि सत्य का धरातल नहीं छोड़ना है, तो दुविधा बची नहीं रह सकती है। दुविधा यानी यह करूं या कुछ और करूं, यह पैदा ही तब होता है जब सम्यक धरातल पर पैर नहीं होते हैं। इनके साथ रहें या ना रहें, कुछ होना या नाकुछ होना, फिर यह सब बहुत ही औपचारिक सी बातें रह जाती हैं, जिनका जीवन में कुछ मूल्य नहीं है।
यदि ठीक से जीवन जिया जाता है, तो पीछे कुछ छूटता ही नहीं है। तथागत यानी पीछे कुछ नहीं छूटना, बुद्ध ठीक से गए। हम ठीक से नहीं जाते हैं, इसलिए बार बार दुहरना पड़ता है। ठीक से जाने का मतलब जीवन में सम्यक धरातल को अवसर दे देना। सम्यक धरातल में दो नहीं हैं, तो कर्म भी दो नहीं हो सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि भय से अभय की कोई यात्रा है। जो भी हम कर रहे हैं, भय, अभय जो कुछ भी है, उसका सम्यक धरातल खोज लेना दुविधा का सम्यक अंत है। केवल एक ही कर्म बचा की कैसे उसे अवसर दिया जाए जो मनुष्य की बुद्धि से निर्मित नहीं है। उसको देख लेना कि पतन का मूल आधार क्या है, या वो क्या है जो मनुष्य की बुद्धि से निर्मित नहीं है।
रहदास ने जूता सिलते हुए सत्य को उघाड़ लिया। जीवन में दो धरातल, समय, कर्म नहीं हैं। जीवन में एक ही कर्म है, नैसर्गिक जागरूकता। वह पथहीन भूमि है जिसमें रेख नहीं छूटती है। क्या अब कुछ छोड़ने पकड़ने के लिए बचा है?
जो भी कुछ है उसके नीचे बह रहे नैसर्गिक जागरूकता को उघाड़ दिया जाए, फिर चाहे जीवन में औपचारिक रूप से कुछ भी होता रहे, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है। जो हो जाए सो हो जाए, अंदर कोई दुविधा या कंपन नहीं है। सत्य अभी और यहीं उपलब्ध है। सारे संयोग बनते और बिछड़ते हैं। ठीक इसी संयोग में वह अमृत उघड़ सकता है, जो कालातीत है।
जीने का वह धरातल क्या है जो दो कर्मों के खंड से मुक्त है? मान अपमान जीवन को तय नहीं करता है, फिर जीवन वास्तव में एक खेल हो जाता है। कृष्ण के लिए जीवन मृत्यु खेल हो गया। हो सकता है कि बाहर औपचारिक कुछ निर्णय लिए जाएं, पर भीतर कोई दुविधा बची नहीं रहती है।
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