"निर्भरता की प्रकृति", के कुछ मुख्य अंश - By Ashwin
१) देखने की कला से एक ऐसा जीवन प्रकट हो रहा है जो था वहां पर, लेकिन हमें पता नहीं था। हमने देखा की ऐसा जीवन भी संभव है जो निर्भरता से जड़ से मुक्त है। शास्त्रों, संस्थाओं, गुरु पर भी वैसे ही निर्भरता हो सकती है, जैसे लौकिक जीवन में होती है।
अनुभव, अपनी छवि, अनुमान, मान्यताएं, स्मृति आदि के मेल जोल से अंदर एक समझ पैदा होती है, उसे जब हम जीवन का उपाय बनाते हैं, तो हम उसिको आंतरिक आत्म निर्भरता कहते हैं। आत्म निर्भरता जैसी कोई चीज नहीं होती है, वो मैं या मन के ही गठजोड़ का एक नाम है।
२) छवियों के माध्यम से जीवन जीने को ही हमने जीने का ढंग समझा है। जितना सशक्त मैं होता है उतनी ही सशक्त छवियां होती हैं। मैं और छवि एक ही चीज है, जैसे मेरे जीवन से छवियों का अंत होने लगता है वैसे ही मेरे जीवन से मेरा भी अंत होने लगता है। हम उन लोगों के साथ रहना चाहते हैं जो उन छवियों को सराहते हैं, और उनसे दूर रहते हैं जो उसकी निंदा करते हैं। हमारे संबंध भी इसी आधार पर बनते हैं।
हमें कोई लक्ष्य पता ही नहीं है, जो लक्ष्य पता थे वो हमारे ही बनाए हुए थे। हमारी निर्मिति से जो भी मिलेगा वो हमारा ही प्रक्षेपण होगा। हमने अपने दर्शन से सीधे देखकर ये जाना है कि दुख है, इस अवलोकन में किसी भी बाहरी आश्रय का सहारा नहीं लिया है। इस जीवन में कुछ भी पाने की जो सतत प्यास है वो संकेत करती है कि जीवन में दुख है। दुख का आशय है कि जीवन कहीं गलत धारा में जा चुका है, वहां कुछ ऐसा हो रहा है जो जीवन का स्वभाव या निज होना नहीं है। कुछ चूक हुई है जीवन में जिसकी वजह से दुख है।
३) जिसको मैं का बोध है, उसीको दुख का भी बोध है। सुख के विपरीत जो है वो दुख नहीं है, अपितु दुख वह है जो सुख और दुख दोनों से गहरा है। यहां दूसरे को हम एक दर्पण की तरह देख रहे हैं, उनका जो भी सद्व्यवहार या दुर्व्यवहार जो उनके माध्यम से प्रकट है, जिससे अपने अंदर की छवि पर प्रभाव पड़ रहा है, उसके लिए हम उनके प्रति कृतज्ञ हैं। वो छवि जो चोट खाती थी, या प्रफुल्लित होती थी और हमें पता नहीं चलता था, अब वो जागरण में प्रकाशित होने लगी है। यदि कोई डॉक्टर आपका रोग बता देता है तो उसके प्रति हम कृतज्ञ होते हैं।
मैं का वो बोध जो दुखी होता है, अभी तक उसके प्रति कभी हम जागे नहीं थे, कभी उसे ठहर कर नहीं देखा। हमारे अंदर एक बोध है मैं का जिसे ये सारे दुख घटते हैं। मैं के बोध को जब नग्न रूप से देखा तो जाना, हमने अपनी एक छवि बनाई हुई है और उस बनी हुई छवि ने मैं को मुजबूती से बनाया हुआ है। मैं का बोध और अपनी छवि समानांतर रूप से होते हैं, जैसे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
४) वो जीवन क्या है जो अपनी और दूसरों की छवियों से सर्वदा मुक्त है, या जो मैं की परछाई से मुक्त है, जो दुख की छाया से भी मुक्त है? वो जीवन जिसमें कोई दुख, परिच्छिन्न मैं, छवि प्रवेश ही नहीं कर सकते हैं। इसको भी किसी तरह के पूर्वाग्रह, कल्पना या आत्म सम्मोहन से नहीं बनाना है। हमने अपने से ही अपने सहारे के लिए किसी ईश्वर को गढ़ लिया है। हमें भय, अकेलेपन से कैसे निबटना है ये नहीं पता है, इसलिए हमने अपने आप कई माध्यमों से, मनोरंजन आदि से आत्म सम्मोहित कर लिया है। विवाह, राष्ट्र भक्ति, सत्ता आदि भी एक तरह का मनोरंजन ही है।
अभी हमें नहीं पता है कि वो जीवन कैसा है कि जो दुख, छवियों से मुक्त है, तो जो जीवन है उसमें हम पूरी तत्परता से जाग रहे हैं। संबंधों में भी हम आदर्श या मलिन छवि ही बना रहे हैं।
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