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Ashwin

वह जीना क्या है जो दो के खंडित धरातल से मुक्त है?

ध्यानशाला सुबह का सत्र, 19 नवंबर 2024


वह जीना क्या है जो दो के खंडित धरातल से मुक्त है? इसका उत्तर बुद्धि में नहीं आयेगा, पर जीवन में उतर सकता है।


यह संवाद जीवन से जुड़ी हुई घटना है। क्या वास्तव में जीवन के दो धरातल हैं? वह धरातल है ही नहीं जहां हम जाना चाहते हैं, जीवन का कोई पथ नहीं है। इस बोध से एक गहन उत्तरदायित्व जन्म लेता है।


मानसिक जमीन भी टूटी हुई नहीं है। सभी पानी का स्रोत एक है। मैं अलग जमीन पर हूं यह एक कोरा भ्रम है। ऐसा कोई धरातल नहीं है, जिसको मुझे पोषित करना है।


वो धरातल क्या है जिसमें कोई खंड नहीं है? खंडित धरातल पर किए गए कर्म दुख लाएं, तो कोई आश्चर्य नहीं है। उस धरातल का कैसे अन्वेषण हो जिसमें कोई खंड नहीं है? जो यह अन्वेषण कर रहा है, क्या वह खुद एक खंड नहीं है? लहरों के अलग दिखने से, महासागर खंडों में टूट नहीं जाता है।


भिन्न विचार प्रक्रिया से यह सिद्ध नहीं हो जाता है कि यहां अलग अलग चित्त हैं, सारी मनुष्य चेतन अखंडित है। खंडित मैं का होना एक गहरा सम्मोहन है। यह मैं का एहसास क्या है? मैं नहीं हूं, तो जीवन नहीं है, यह बात ही गलत है। वास्तव में, मैं जैसी कोई चीज होती ही नहीं है। क्या यह एक झांसा, ख्याल है, या क्या यह एक तथ्य है?


यह प्रश्न उठाने मात्र से एक नैसर्गिक जागरूकता वहां पाई जाती है। यानी हम अपना दीप, बाती, तेल स्वयं बन गए। इससे बिना जागरण को साधे क्या जागरूकता जीवन में प्रवेश नहीं करने लगती है? ध्यान कोई कर नहीं सकता है, जब चित्त शुद्ध होता है, तो ध्यान उसका वरण करता है।


अब प्रश्न उठता है कि क्या दो समय हैं?


एक मछुआरा कहता है कि आज मछली पकड़ ली है, इसलिए सुस्ता रहा हूं। उससे किसी ने पूछा कि और थोड़ी पकड़ लोगे, तो हमेशा के लिए सुस्ता सकते हो। मछुआरे ने कहा, हमेशा के लिए सुस्ताना क्या होता है? हो सकता है कि मैं पहले से ही हमेशा के लिए सुस्ता रहा हूं। कहीं हम पैसा कमाने के चक्कर में सहज सुस्ताने की कीमिया खो तो नहीं दे रहे हैं?


क्या जीवन कुछ कमाने के लिए ही मिला हुआ है? जीवन का सहज स्वभाव होना मात्र है। जीवन एक रहस्य है, जितना जीवन उघड़ता है, जाना जाता है, वो एक सूचना मात्र बन जाता है। क्या कमाई के बाद विश्राम होगा, ऐसे दो समय कहीं हैं भी क्या? कमाई करने का कोई वास्तविक धरातल है भी क्या? जीवन क्या दो समय में बांटा जा सकता है?


भविष्य की योजना बनाने में, कहीं हम जीवन के वास्तविक धरातल से चूक तो नहीं जा रहे हैं? कहीं यह सोचना भी समयातीत में ही तो नहीं घट रहा है? कहीं हमने अपने उपयोग के लिए बुद्धि के द्वारा समय को वास्तविक जीवन पर प्रक्षेपित तो नहीं कर दिया है?


जीवन उस समयातीत धरातल पर घट रहा है, जिसपर काल्पनिक समय घट रहा है। क्या जीवन समय में गति कर रहा है, या जीवन समयातीत है?


चीजों के बदलने के कारण हम समझते हैं कि समय है। आंकड़ों में ही समय तीन टुकड़ों में विभाजित हो रहा है। क्या जीवन समय में घट रहा है, या जीवन में समय घट रहा है? जितने व्यक्ति हैं उतने समय हो सकते हैं। जीवन में घट रहा समय एक उपयोगी चीज है, ना कि वास्तव में जीवन समय में घट रहा है।


यह देखने से हम कुछ भी आगे स्थगित नहीं कर सकते हैं, क्योंकि कोई दूसरा समय ही नहीं है। जो श्रेष्ठतम है वो अभी और यहीं है। यदि कोई नाराजगी, या क्षमा है, तो उसे अभी देखना होगा। हम भले क्षमा ना मांगे, पर फिर भी दो समय नहीं हैं। दिक्कत यह है कि हम अपनी क्षमा, नाराजगी को अभी पूरी तरह से जी ही नहीं रहे हैं।


क्या वास्तव में जीवन में दो समय हैं? कभी भविष्य में समय नहीं होगा, ना अतीत में कभी कोई समय था, तो समयातीत में जीवन घटने लगा। हमारी यह बड़ी भूल है कि हमने समय को सच मान लिया है।


हमने समय की जलधारा पर एक काल्पनिक नींव बनाई हुई है। मैं समय को निर्मित करता हूं, दो समय का निर्माण मैं को निर्मित करता है। यदि समय में कोई विभाजन नहीं है, तो मैं भी नहीं हूं। या तो मैं हूं, या अकाल है।


जिसपर समय बनता है, वही वास्तविक जीवन है। उसको हम जान नहीं सकते हैं, पर इसका मतलब यह नहीं है कि वो है ही नहीं। जो सतत बोध में ना हो, उसका ही अनुभव हो सकता है, जो सतत बोध है, उसका अनुभव ही नहीं हो सकता है। समय का जो वास्तविक धरातल है, वह तो निरंतर व्याप्त है। पृथ्वी एक सतत गति में है, इसीलिए उसके गति में होने का हमें पता ही नहीं चलता है। विमान के अंदर विमान की गति का हमें पता नहीं चलताहै। समय और गति की कल्पना से, काल्पनिक वस्तु का निर्माण हो जाता है।


बुद्धत्व कोई बाजीगरी थोड़ी ही है। बुद्धत्व सबसे सरल और सहज घटना है। यह अस्तित्व संबोधी से ही निर्मित है। बुद्धत्व की घोषणा इस तरह से है कि हम किसी राजा की पोशाक पहन लें, और समझ लें की हम राजा बन गए हैं।


हम माप से बने हैं, तो हम माप को ही जान सकते हैं। जो ध्यान का थोड़ा सा अनुमान लगा लेता है, वो भी मैं ही है। इस बोध से चुपचाप जीवन अज्ञेय में सरकता चला जाएगा, और जो सीमित है, वो जीवन से विदा होता चला जाएगा।


बिना दो समय की परिकल्पना के जीना क्या है? क्या वास्तव में जीवन में दो समय हैं? बिना समय के जीना क्या है?

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