पत्थर की हाथ से तराशी गई एक खुरदुरी स्लेटी रंग की गोल मेज़ के चारों ओर हम लोग बैठ गए। बैठने के लिए मेज़ के चारों ओर पत्थर की ही बेंच बनाई गई थी। बिना हत्थों और पीठ की असुविधाजनक बेंच पर बैठकर हमें एक सुखद एहसास भी हुआ कि, बेंच कुनकुनी धूप में थोड़ी गर्म हो गई है। जिससे इस ठंडे मौसम में बिन माँगे हमारी थोड़ी सिंकाई हो रही है।
पहाड़ पर बसे इस नगर में यह बहुत बड़े बंगले का एक हिस्सा था, जो लॉन की तरह प्रतीत होता था। हमारी मेज़ के ही पास खूब बड़े बड़े मोहक पहाड़ी फूल खिले हुए थे, जिनमें गंध न के बराबर थी। ऊँची चहारदीवारी के पार बहते किसी प्राकृतिक जल स्रोत से निकलने वाले प्रवाह की कलकल हमें साफ़ सुनाई दे रही थी। एक बड़े से कुत्ते ने बालकनी से बाहर चौंककर हमारी तरफ़ देखा फिर अपने स्वामी को देखकर शांत होकर बैठ गया। वह बड़े निर्विकार भाव से हम लोगों की तरफ़ देखे जा रहा था। कई दिनों के बरसाती मौसम के बाद आज धूप निकली थी। कुछ रंगबिरंगी तितलियाँ और गिलहरियाँ हमारे आस पास मँडरा रही थी। फूल के धोखे में एक तितली मित्र के रंगीन स्वेटर पर आ बैठी, फिर अपनी भूल का भान होते ही उड़ गई।
हम चार मित्रों में एक विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर थे। दो मित्र वर्षों से दो भिन्न परम्पराओं (वेदांत और बौद्ध) के विरक्त साधु थे। अपने अपने क्षेत्र में सभी मित्रों ने जीवन लगाया था। साधु मित्रों ने अपनी परम्परा के अनुसार खूब साधना की थी साथ ही अपनी परंपरा के दर्शन का खूब पठन पाठन भी किया था। उनकी वाणी, उनकी उपस्थिति और भाव भंगिमा में एक मधुरता थी।
चर्चा हमारी इस प्रश्न से शुरू हुई कि, स्वयं को देखना क्या है? बौद्ध परम्परा से जुड़े मित्र ने इस बात पर ज़ोर दिया कि, ‘मैं’ जैसी कोई चीज होती ही नहीं है। यह हमारे ग़लत संस्कार और प्रमाद के कारण जीवन में पैदा हुई एक ऐसी संस्था है, जिसके आस पास दुःख की सारी भूमिका रची जाती है। यदि इस संस्था को जीवन में अस्वीकार कर कर्म किए जाएँ, तो दुःख को जगह नहीं मिलती है।
वेदांती मित्र ने उनका खंडन किया कि, यह सच है कि, जीवन में दुःख है। लेकिन वह ‘मैं’ के कारण नहीं है। दुःख ‘मैं’ के प्रति हुई गलत समझ के कारण है। ‘मैं’ का निर्लिप्त बोध अविनाशी है। अनादि और अनंत है। जब व्यवहारिक ‘मैं’ को हम अपना ‘मैं’ होना समझ बैठते हैं, तो दुःख को ज़मीन मिल जाती है। लोक व्यवहार में जीवन है, मृत्यु है, मिलन-विछोह, सुख -दुःख है, पर हम उसके साक्षी हैं। जब हम स्वयं को कर्ता समझने लगते हैं, तो दुःख शुरू हो जाता है।
प्रोफ़ेसर मित्र ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की। कहा कि, दरअसल जिसे वेदांत ‘मैं’ कह रहा है, उसे ही बौद्ध मत में निर्वाण या अनत्ता कहा जाता है। जिसे वेदांत में व्यावहारिक मैं कहा जाता है, उसे ही बौद्ध दर्शन में दुःख का मूल कहा जाता है।
इसी तरह खंडन, मंडन, सामंजस्य में बढ़ती चर्चा धीरे धीरे कटुता में बदलती गई। लगभग तीनों लोग रोष में आ गए। ऊपर ऊपर बड़े जतन से छोपी गई मृदुता, सौम्यता, साधुता सब जाती रही।
मत या वाद का पक्षकार होना या प्रतिपक्षी होना सहज साधुता के लिए विष सदृश है। यह ठीक वैसी मोर्चेबंदी को निर्मित करती है, जैसी धर्म और राष्ट्रीयता के नाम पर होती है। मत या वाद के पक्ष अथवा विपक्ष ने ही युद्धों को जन्म दिया है। युद्ध तभी नहीं होते जब बम गोलियाँ दागी जाती हैं। जब लाखों लोग मरते हैं। हमारे भीतर और सम्बन्धों में शीतयुद्ध चलता ही रहता है, क्यूँकि हम आग्रहग्रस्त हैं। कितने भी समाधान के उपाय किए जाएँ, शांति सद्भाव की दुहाई दी जाय, भीतर मोर्चेबंदी और युद्ध की हिंसा चलती ही रहती है। जिससे झुलसे हमारे जीवन की दशा छिपी नहीं है।
एक हल्के हरे रंग की साड़ी बांधे महिला हमारी तरफ़ देखे बिना मेज़ पर आकर काफ़ी के मग रखकर चली गई। उसके चेहरे पर धीमी धीमी मुस्कान थी।
हम लोग सँवाद के लिए वहाँ बैठे थे, पर सँवाद तो हुआ ही नहीं। हम स्वयं को देखने के लिए, समझने के लिए साथ चले थे। वहाँ तो भीतर जो था, जैसा था उसका साथ साथ दर्शन परीक्षण होना चाहिए था। दर्शन हुआ ही नहीं, अपने भीतर की गहराई में हम साथ उतरे ही नही। ओछा ज्ञान दम्भ; हमारे सँवाद को वाद-विवाद में निगल बैठा।
सँवाद वाद-विवाद नहीं है, जिसमें हम अपने ज्ञान कौशल का प्रदर्शन करें! सँवाद तभी घटित हो सकता है, जब हम अपने ज्ञान, समझ के आग्रह को भी निष्पक्ष रूप से देखने का साहस, सामर्थ्य कर सकें। जो कि शायद हम कभी नहीं चाहते हैं।
सँवाद यदि शुद्धतम अर्थों में कहा जाय तो विशुद्ध ध्यान है। जिसमें सामने वाले व्यक्ति से उतना ही सरोकार होता है, जितना एक दर्पण से होता है। जब आप दर्पण में स्वयं को देख रहे होते हैं, तो दर्पण से अपेक्षा नहीं कर सकते हैं कि, वह आपकी अपेक्षा के अनुरूप आपको दिखाए। यदि आप ठीक ठीक सँवाद की प्रक्रिया में हैं, तो यह बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है कि, आप क्या जानते हैं। या जिससे संवाद हो रहा है, वह क्या जानता है।
हम जो जानते हैं, उसे कौशलपूर्वक या बेढ़ब ढंग से सँवाद में रखना एक छोटा सा हिस्सा है। सम्यक् सँवाद की मुख्य कला है कि, जो मैं कह रहा हूँ, उसके प्रति होशपूर्ण बना रहना। यानि अपनी समझ को जागकर समझना। समझ को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयोग की जा रही भाषा को, उसके शब्दों को बोलने से पहले अपने चित्त पटल पर चलता हुआ महसूस करना। जब उन शब्दों को कंठ से जिह्वा से होंठ से स्वर दिए जाने की प्रक्रिया घटे, उसे महसूस करना। अपने शब्दों की ध्वनि को स्वर को सुनना।
सम्यक् सँवाद में जितना कहना महत्वपूर्ण है, सुनना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। कहने के स्थान पर जब हम सुनते हैं, तो जहाँ कहने में सबसे अंत में शब्दों की ध्वनि सुनना आता है, वही सुनने में यह सबसे प्रथम होता है। सँवाद में जब हम सुनें तो सबसे पहले जो शब्दों की ध्वनि हमारे कानों में पड़ रही है, उसको सुनें। फिर वह ध्वनि जब भाषा के शब्द के रूप में ढले, तो उसको घटित होता हुआ देखें। जब चित्त पर उन शब्दों का अर्थ प्रकट हो तब, उन अर्थों को देखें। और अंत में हमारे अंदर उस सुनने के बाद प्रतिक्रिया के रूप में जो विचार आए या भाव उठें उनके प्रति बिना निंदा या प्रशंसा के जागृत रहें।
इस कहने सुनने के बीच जो अंतराल हो, उसके प्रति भी जागरण बना रहे।
सँवाद की यह प्रक्रिया वस्तुतः चमत्कारिक प्रक्रिया है। यह प्रचंड उत्सुकता, अभिरुचि और होश की माँग करती है। यह सँवाद की प्रक्रिया आमूल रूपांतरण करने में सक्षम है। इस तरह के जागृत कहने सुनने में जो, झूठ है, चाहे वह मेरे अपने ज्ञान में संचित हो या दूसरे के ज्ञान में हो, वह स्वतः जीवन धारा से पोंछ उठता है। जो सत्य है, वह फिर ज्ञान से उतरकर हमारे जीवन व्यवहार का हिस्सा हो जाता है।
यह सँवाद की कला अपने प्रति सीखने का सबसे कारगर ढंग है। अनायास ही दूसरे के आइने में हमारे भीतर की वे सारी दबी ढँकी चीजें बाहर आकर हमको देखने को मिलती हैं, जो हमारे भीतर होती तो हैं, पर हमें देखने पकड़ने में नहीं आती हैं। एक तरफ़ यह कला हमें अभी जो हम हैं, उसे जानते, देखते, सीखते हुए उसका सम्यक् अंत करती है, दूसरी तरफ़ यह उस जीवन को भी उद्घाटित करने व जीने लगती है, जो हमारी अभी की संरचना से न्यारा है। जो विभाजनकारी ‘मैं’ से, दुःख जीवन से, दुहराव से, बनावटीपन से बिल्कुल ही अछूता है।
सँवाद की यह कला वाद विवाद नहीं है। वाद विवाद में आप जीतें अथवा हारें, दोनो ही स्थिति में हमारा आपका पुराना ढाँचा और ‘मैं’ और मज़बूत होता है। जीतने पर हम दम्भ से भर उठते हैं, हारने पर विषाद से। या फिर कोई बीच का रास्ता निकाल लेते हैं, जिससे दोनों अपनी मान्यताओं और समझ में घुमा फिराकर बने रहें!
हम लोग अगली बार फिर से मिलने के लिए वायदा कर विदा हो गए। इस सहमति के साथ कि, हमें अभी सँवाद करने की कला ही नहीं आती है।
धर्मराज
25/08/2021
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